लालकुआं बिंदुखत्ता:
“”चैनल बने महीना नहीं हुआ पहली बरसात में टूट गया”””
बिंदुखत्ता की कहानी: जब हर बरसात डर लेकर आती है”
यह सिर्फ एक तस्वीर नहीं, यह एक हकीकत है – एक पूरे गांव की पीड़ा, एक पूरे समाज की उपेक्षा की तस्वीर। ये कहानी है बिंदुखत्ता की, जो उत्तराखंड में गोला नदी के किनारे बसा एक ऐसा इलाका है जहां बरसात सिर्फ मौसम नहीं, बल्कि एक संकट बनकर आती है।
जब देश के अन्य हिस्सों में लोग मानसून का स्वागत करते हैं, तो बिंदुखत्ता के लोग हर काली घटा को डर और दहशत की निगाह से देखते हैं। क्योंकि यहां बरसात का मतलब है – रातों की नींद का छिन जाना, खेतों का कट जाना, और कभी-कभी तो घर और ज़मीन का बह जाना।
बर्बादी का सिलसिला
“””पिछली सरकारों में करोड़ों रुपये की लागत से “चैनल” बनाए गए – कागज़ों में तो वे मजबूत थे, तकनीकी भाषा में “सुरक्षा कवच” थे। लेकिन हकीकत में वे उतने ही कमजोर निकले, जितनी किसी सूखी शाखा पर की गई उम्मीद। कुछ समय टिके, फिर बारिश आई और सब बहा ले गई।”””””
“””अबकी बार फिर लाखों रुपये खर्च कर एक नया चैनल तैयार हुआ – लेकिन दुखद सच्चाई यह है कि वह हल्की सी बारिश में ही ढह गया। ज़रा सोचिए, जब गोला नदी तेज़ी में आएगी, तो क्या वो चैनल उसके सामने टिक पाएगा? या फिर एक बार फिर वही दृश्य दोहराया जाएगा – कटती ज़मीनें, उजड़ते घर और डरे-सहमे लोग?””””
जिम्मेदारी कौन लेगा?
सवाल ये नहीं है कि चैनल क्यों टूट गया। सवाल ये है कि इसकी गुणवत्ता की जांच कौन करेगा? क्या ठेकेदार की जेब भरकर जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? क्या शासन-प्रशासन का काम सिर्फ फाइलें पास करना और टेंडर देना रह गया है?
अगर समय रहते कार्रवाई की जाए, तो अब भी इसे सही किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए – और वह फिलहाल न सरकार में दिखती है, न विभागों में। हर साल जनता यही सवाल पूछती है, लेकिन हर बार उन्हें खामोशी ही मिलती है।
स्थाई समाधान क्यों नहीं?
जब एक गांव सालों से हर बरसात में डूबने के डर में जी रहा है, तो फिर स्थाई समाधान क्यों नहीं खोजा जाता? क्यों हर बार अस्थाई चैनलों का ही सहारा लिया जाता है? क्या सरकार सिर्फ आपदा आने के बाद फोटोज खिंचवाने और मुआवज़े की घोषणाएं करने के लिए है?
बिंदुखत्ता को अब राहत नहीं, स्थिरता चाहिए।
बचाव नहीं, विश्वास चाहिए।
घोषणाएं नहीं, जमीन पर समाधान चाहिए।
अब वक्त आ गया है…
अब वक्त आ गया है कि बिंदुखत्ता की आवाज़ दिल्ली और देहरादून तक पहुंचे। अब वक्त है कि प्रशासन सवालों के जवाब दे। और अब वक्त है कि गोला नदी के किनारे बसे लोग डर से नहीं, गरिमा से जी सकें।
बिंदुखत्ता की ये तस्वीर सिर्फ एक भूगोल नहीं, एक सामाजिक अन्याय का प्रतीक है।
