उत्तराखंड के पहाड़ों की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था और टूटी-फूटी सड़कों ने एक और ज़िंदगी छीन ली। यह कहानी सिर्फ एक शिक्षक की मौत की नहीं है, बल्कि उस दर्द की है जिसे पहाड़ के लोग रोज़ झेलते हैं।
चंपावत जिले में 56 वर्षीय शिक्षक कुंदन सिंह बोहरा की तबीयत अचानक बिगड़ गई। पास में न अस्पताल, न एंबुलेंस, न ही सड़क की सुविधा। परिवार और ग्रामीणों ने उन्हें ज़िंदा बचाने की कोशिश की, लेकिन हालात ऐसे थे कि उन्हें अस्पताल पहुंचाने के लिए डोली बनाने तक का इंतज़ाम करना पड़ा। पर अस्पताल तक पहुंचने से पहले ही उनकी सांसें थम गईं।
जिस लट्ठे और रस्सी से बनी डोली में उन्हें जीवन देने के लिए ले जाया जा रहा था, वही डोली उनके शव को सड़क तक पहुंचाने का सहारा बनी। यह दृश्य किसी भी इंसान की आंखें नम कर देता है।
पहाड़ों का कड़वा सच
यह कोई पहली घटना नहीं है। हर साल ऐसी कितनी ही जिंदगियां समय पर इलाज न मिलने के कारण दम तोड़ देती हैं। पहाड़ों में आज भी कई गांव ऐसे हैं जहां न सड़क है, न अस्पताल, न डॉक्टर। ग्रामीणों को मजबूरन डोली, खच्चर या कंधों पर मरीज और शव उठाकर कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है।
क्या यही है विकास? क्या यही है पहाड़ों में रहने वाले लोगों का हक़?
सवाल व्यवस्था से
क्यों आज़ादी के 75 साल बाद भी पहाड़ के लोग सड़क और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं?
क्यों सरकारें हर बार वादे करती हैं, लेकिन पहाड़ के गांव अब भी बदहाली में जीने को मजबूर हैं?
कब तक पहाड़ों के लोग अपने परिजनों को कंधे पर ढोते रहेंगे?
इंसाफ़ और बदलाव की मांग
कुंदन सिंह बोहरा सिर्फ एक शिक्षक नहीं थे, वे गांव के बच्चों के भविष्य के निर्माता थे। उनकी मौत सिर्फ एक परिवार की त्रासदी नहीं, बल्कि पूरे समाज की पीड़ा है। यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि अगर गांव में सड़क और अस्पताल होते, तो शायद एक जिंदगानी बच सकती थी।
सरकार और प्रशासन से यह मांग है कि अब सिर्फ वादों से काम नहीं चलेगा। पहाड़ों के हर गांव तक सड़क, एंबुलेंस और स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाना ज़रूरी है। वरना हर बार कोई न कोई कुंदन सिंह अपनी जान गंवाता रहेगा और पहाड़ केवल मातम मनाता रहेगा।














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